= काश समस्याओं के समाधान को निकलती यात्राएं
= स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार इन यात्राओं के जरिए कराया जाता उपलब्ध
= चुनावों का शंखनाद करती है यात्राएं
(((टीम तीखी नजर की रिपोर्ट)))
चुनावी शंखनाद हो चुका है। प्रदेश में यात्राएं शुरु हो गई है। चुनाव नजदीक आने के साथ यात्राएं शुरु होना अब राज्य की पहचान बन गया है। इन यात्राओं को नाम अलग अलग दिया गया है पर लक्ष्य एक ही है। यात्राओं का मकसद बस और बस सत्ता तक पहुंचना है। एक बार फिर यात्राओं के जरिए बडे़ बडे़ दावो तथा वादो का समय भी आ गया है। खास बात यह है की इस बार यात्राओं के जरिए राजनैतिक पार्टियां एक-दूसरे पर गंभीर आरोप-प्रत्यारोप भी लगा रही हैं। देखना रोचक होगा कि इन यात्राओं के सहारे कौन इस बार सत्ता तक पहुंचता है। पर अभी सवाल वही का वही खड़ा है कि काश इन यात्राओं के ही सहारे गांवो की समस्याओं का समाधान हो जाता है। 21 बरस के उत्तराखंड राज्य में आखिरकार शिक्षा, स्वास्थ्य समेत तमाम मुद्दे इन यात्राओं से क्यों गायब हो जाते हैं। समस्याएं तो इन यात्राओं के आसपास भी नहीं फटकती। सवाल यह भी है की यात्राओं में शामिल होने वाले लोग भी आखिरकार मुद्दों से क्यों भटक जाते हैं। राजनीतिक दलों के हुक्मरानों के आगे समस्याएं क्यों नहीं उठती। हर पांच वर्ष बाद इन यात्राओं की शोर में समस्याएं दब जाती है। सिर्फ वादे व आश्वासनों की झड़ी लगती है पर समाधान नहीं होता। आज भी सुदूर गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य समेत कई समस्याएं जस की तस बनी हुई है। देखना यह भी रोचक होगा कि इस बार यात्राओं के मंथन से किसको सत्ता की चाबी हाथ लगती है।
गांव के सीधे साधे लोगों को आसानी से बरगलाते है
मतदाताओं को रिझाने के लिए लच्छेदार भाषणों की भी शुरुआत हो गई है। एक से एक दावे और वादे सामने आ रहे हैं। खास बात यह है कि पर्वतीय क्षेत्र के मतदाताओं को आसानी से लुभाया जाता है। गांव के भोले भाले लोग आसानी से बस में आ जाते हैं। हालांकि चुनावों के बाद पांच वर्ष तक गांवों की सुध नहीं ली जाती। लोग बूंद-बूंद पानी को तरसते हैं। स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के लिए कई किलोमीटर की दूरी नापनी पड़ती है। बेहतर शिक्षा व्यवस्था न होने से गांव के गांव खाली हो रहे हैं। अब जरूरत है गांव के लोगों को अपनी ताकत समझने की।