= धान, गेहूं की बंपर पैदावार करने वाले गांव के खेत रोखड में तब्दील
= नहीं भरा वर्ष 2010 की आपदा का जख्म
(((सुनील मेहरा/शेखर दानी/पंकज भट्ट की रिपोर्ट)))
कोरोना संक्रमण से बचाव को लगे लॉकडाउन में हुए घाटा तथा ठीक समय पर बारिश ना होने से किसानों को हालांकि भारी नुकसान उठाना पड़ा है पर वर्ष 2010 में हुए नुकसान की भरपाई किसानों को आज तक नहीं हुई है। हालात यह है कि कभी धान व गेहूं की बंपर पैदावार करने वाले किसान आज सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान में लाइन में खडे़ है।
बेतालघाट ब्लॉक के कोसी नदी किनारे तमाम गांवों के किसानों की हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि थी। वर्ष 2010 में कोसी नदी के वेग ने पल भर में ही कृषि भूमि को रोखड़ में तब्दील कर दिया। कभी धान गेहूं की बंपर पैदावार करने वाले गांवों के काश्तकारों को काफी नुकसान उठाना पड़ा। वर्ष 2010 की भरपाई आज तक ना हो सकी। उपजाऊ खेत बर्बाद हो गए। रही सही कसर लॉकडाउन ने पूरी कर दी। अब जब किसानो ने एक बार फिर खेतों को रुख किया तो मौसम ने साथ छोड़ दिया। ब्लॉक के रतौडा़ गांव में करीब सौ से ज्यादा किसान हजारों हेक्टेयर भूमि में धान व गेहूं की का पैदावार करते थे पर 2010 में सब कुछ चौपट हो गया।करीब दो हजार नाली में अच्छा उत्पादन होता था पर अब महज सौ नाली ही शेष बची है। उसमें भी बमुश्किल उपज की पैदावार होती है। ऐसे में किसान निराश व मायूस है। हालात यह है की अन्न उगाने वाले अन्नदाता अब खुद ही सस्ते गल्ले की दुकानों में लाइन लगाते हैं। स्थानीय लोगो अनुसार वर्ष 2010 में हुए नुकसान की भरपाई मुआवजे के तौर पर की गई पर वह नाकाफी साबित हुआ। साफ कहा है कि वर्ष 2010 के जख्म आज तक नहीं भरें। कभी गेहूं, धान की बंपर पैदावार करने वाले गांव के काश्तकार काफी हद तक अब सस्ते गल्ले पर सरकारी राशन पर निर्भर है।
जंगली जानवर भी बने अभिशाप
ऐसा नहीं कि वर्ष 2010 में कोसी नदी के रौद्र रूप की भेंट चढ़ी कृषि भूमि को दुरुस्त करने के लिए किसानों ने मेहनत नहीं की। हमेशा से हाड़तोड़ मेहनत करने वाले कोसी घाटी के धरतीपुत्रों ने खेतों को दुरुस्त करने की कोशिश की पर दिन पर दिन हालात बिगड़ते चले गए। बमुश्किल खेतों को दुरुस्त किया पर जंगली जानवरों के झुंड खेतों के लिए अभिशाप बन गए है। जंगली जानवर खेतों को रौंद फसल को चौपट कर दे रहे हैं।